रीवा शहर में रविवार को मोहर्रम का त्योहार शांतिपूर्ण और सौहार्दपूर्ण माहौल में मनाया गया। दिनभर विभिन्न स्थानों पर रंग-बिरंगे ताजियों की सजावट की गई, जिसके बाद शाम को एक विशाल जुलूस निकाला गया। इस्लामी कैलेंडर के पवित्र महीने मोहर्रम, जो नए वर्ष की शुरुआत का प्रतीक है, का विशेष महत्व है। यह महीना हजरत इमाम हुसैन की कर्बला में शहादत की याद में मनाया जाता है, और दसवां दिन 'रोज-ए-आशुरा' के रूप में खास होता है।
रीवा में मोहर्रम का इतिहास अनूठा और प्रेरणादायक है। 1758 में मुगल बादशाह शाह आलम की पराजय के बाद उनकी गर्भवती पत्नी मुबारक महल को रीवा के महाराजा अजीत सिंह ने शरण दी। महाराजा ने बेगम को मनगवां से रीवा लाकर मुकुंदपुर की गढ़ी में ठहराया, जहां उन्होंने अकबर द्वितीय को जन्म दिया। मुगल सैनिकों को बिछिया नदी के किनारे बसाया गया। उसी दौरान मोहर्रम के जुलूस की शुरुआत हुई, जब महाराजा ने सैनिकों को ताजिया बनाने के लिए बांस, लकड़ी, कपड़े और 33 रुपये 3 पाई नकद दिए।
मोहर्रम के जुलूस में मुगल सैनिक लकड़ी पटा खेलते हुए रीवा किले पहुंचे, जहां चंदेलिन महारानी कुन्दन कुंवरी ने ताजियादारों का स्वागत किया, शर्बत पिलवाया और नेग दिया। यह परंपरा आज भी कायम है। रीवा का शाही ताजिया जुलूस हिंदू-मुस्लिम एकता का प्रतीक बना हुआ है, जो भारतीय संस्कृति की समावेशिता को दर्शाता है। आज भी ताजिया और अखाड़ा रीवा किले पहुंचते हैं, जहां परंपरागत स्वागत होता है।
शहर में ताजियों की सजावट और जुलूस ने लोगों का ध्यान खींचा। स्थानीय प्रशासन ने शांतिपूर्ण आयोजन के लिए सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम किए। मोहर्रम का यह उत्सव रीवा की सांस्कृतिक और सामाजिक एकता का जीवंत उदाहरण है।
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